Sunday, August 30, 2009

भूख का मंज़र

इन्तहां है कहीं गुरबत की कहीं ज़र देखो --
देखना है तो कहीं भूख का मंज़र देखो -
देखते क्या हो तमाशों को ज़माने वालों -
तुम गरीबों के बंधा पेट पर पत्थर देखो -
तेज़ की धूप मैं जिस्म जलता है -
और बरसात में मुफलिसों के गिरे घर देखो -
भूख में रोते हुए बच्चों की सुनो किलकारी -
या किसी माँ का गरीबी में खुला सिर देखो-
रोटियां फैंक दी जाती हैं कहीं कूडों पर -
है निवाले का भी मोहताज कोई घर देखो -
इनसे ना बचिए ये भी खुदा वाले हैं -
इन गरीबों से भी कभी दिल लगा कर देखो.-
तबस्सुम जहाँ


Friday, August 21, 2009

श्रमिक खंड 1

कोटि कोटि वर्चस्व मेरा,
धरणी धरतल का मैं सुत,
अम्बर वहन किये दो कर में,
लिए खड़ा मैं ब्रह्म का पुत्र,
सृष्टि के निर्माण में बना
मैं भी सहभागी,
कहलाया धरती पर मैं,
ईश्वर का अनुगामी,
भुजाएं मेरी विशाल,
पाकर असीम बल,
तोड़ता आया हूँ मैं,
सदा पर्वत निश्छल,
उफनती नदियों को
सदा मोड़ आया हूँ मैं ,
कौंधती बिजलियों को,
सदा रौंद आया हूँ मैं,
खड़े किये हैं मैंने ही,
जाने कितने विशाल भवन,
विशाल अट्टालिकाएं सब,
मेरे ही पुरुषार्थ का फल,
कभी रूप धर किसान का मैं
अमृत मथता आया हूँ,
उपजा कर जीवनदायी अन्न,
जगत की शुधा मिटाता आया हूँ,
सागर को चीर बना कर सेतु,
किया कल्याण में हरि के हेतु,