Sunday, August 30, 2009

भूख का मंज़र

इन्तहां है कहीं गुरबत की कहीं ज़र देखो --
देखना है तो कहीं भूख का मंज़र देखो -
देखते क्या हो तमाशों को ज़माने वालों -
तुम गरीबों के बंधा पेट पर पत्थर देखो -
तेज़ की धूप मैं जिस्म जलता है -
और बरसात में मुफलिसों के गिरे घर देखो -
भूख में रोते हुए बच्चों की सुनो किलकारी -
या किसी माँ का गरीबी में खुला सिर देखो-
रोटियां फैंक दी जाती हैं कहीं कूडों पर -
है निवाले का भी मोहताज कोई घर देखो -
इनसे ना बचिए ये भी खुदा वाले हैं -
इन गरीबों से भी कभी दिल लगा कर देखो.-
तबस्सुम जहाँ


10 comments:

  1. bahut hi dardnaak sachaai...aap bahut achha likhti hain

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  2. इनसे ना बचिए ये भी खुदा वाले हैं -
    इन गरीबों से भी कभी दिल लगा कर देखो.

    -बहुत उम्दा ख्याल!! वाह!

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  3. इनसे ना बचिए ये भी खुदा वाले हैं -
    इन गरीबों से भी कभी दिल लगा कर देखो
    वाह तबस्सुम जी आप बहुत अच्छा लिखती हैं.
    आपको पढकर अच्छा लगा.

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  4. जहान, बहुत बहुत खूबसूरत! क्या कहूं मेरे पास शब्द नहीं...अल्टीमेट. रिदम और अहसाओं की प्रष्ठभूमि इस रचना की जान है.
    वधाई. जारी रहें.
    ---
    please remove word verification!

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  5. रोटियां फैंक दी जाती हैं कहीं कूडों पर -
    है निवाले का भी मोहताज कोई घर देखो -
    विसंगतियो को बखूबी आपने उकेरा है.
    बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  6. इन गरीबों से भी कभी दिल लगा कर देखो.-
    तबस्सुम जहाँ ..baht achha likhti hai aap....

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  7. kafi umda likhti hai aap ... aapki har ghzal aur nazm me jaadu hai ...bahut khoob

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  8. ye rachna ka har ek harf fariyaad kar raha hai aap ke bhitar ki gahrai ko samjhne ke liye

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